ऐ सरज़मीने इलाहाबाद
तुझसे दूर होकर
हम दिन गुजारते हैं
तन्हाइयों में रोकर
कैसे कहें हमारे लिए
तू क्या है इलाहाबाद
बसता है दिल जहाँ
वो जगह है इलाहाबाद
हम तुझसे आशना थे
वो वक्त और था
हम भी थे इलाहाबादी
क्या खूब दौर था
शहरे वफ़ा तुझसे मेरी
पहचान है पुरानी
रौशन तेरे बाज़ार या
गलियाँ हों जाफरानी
मुसलमाँ जहाँ होली में
चेहरों को रंगे रहते
हिंदू भी मुहर्रम में
थे मर्सिया कहते
गुस्से में भी जुबां से
आप निकलता था
रस्ता बताने वाला
साथ में चलता था
जिसको न दे मौला
उस पर भी इनायत
मशहूर है अजदाद ने
छोड़ी नही गैरत
शेरो-सुखन से लोग
बातों की पहल करते
महफिल में बुला कर
क्या खूब चुहल करते
पतंगों से आसमान की
जागीर झटकते थे
वो ढील छोड़ देते
हम गद्दा पटकते थे
मकबूल बहुत है
कबाब जहाँ का
बेमिसाल आज भी
शबाब जहाँ का
हमको है याद आती
तेरी शाम अब भी
रौशन है ज़हनो दिल में
तेरा नाम अब भी
गर्दिशे हालात से
मजबूर हो गए
न चाहते हुए भी
तुझसे दूर हो गए.....
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